स्मृति शेष: प्रख्यात लेखक-फिल्मकार सागर सरहदी कभी विभाजन से संगत नहीं बैठा पाए. बंबई में बस जाने के बावजूद उनके अंदर का वह शरणार्थी लगातार अपने घर, अपनी जड़ों की तलाश में ही रहा.
मंटो नूरजहां को लेकर कहते थे, 'मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई था. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग्ज़िश के खड़े रहते हैं.'
इस्मत कहा करती थीं, 'मैं रशीद जहां के किसी भी बात को बेझिझक, खुले अंदाज़ में बोलने की नकल करना चाहती थी. वो कहती थीं कि तुम जैसा भी अनुभव करो, उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने की ज़रूरत नहीं है, और उस अनुभव को ज़ाहिर करने में तो और भी नहीं है क्योंकि हमारे दिल हमारे होंठों से ज़्यादा पाक़ हैं...'
जब भी स्त्री अधिकारों की बात होगी, तो अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की जज रूथ बेदर गिंसबर्ग का नाम ज़रूर आएगा. रूथ ने न केवल अपने काम से लाखों औरतों को प्रेरित किया, बल्कि अपने फ़ैसलों के ज़रिये उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार भी खोले, जो लैंगिक भेदभाव के चलते बंद थे.
हरिशंकर परसाई व्यंग्य के विषय में ख़ुद कहा करते थे कि व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है. उनकी रचनाएं उनके इस कथ्य की गवाह हैं.
विशेष: प्रेमचंद अगर आज के हालात, ख़ासकर तथाकथित संस्कृति बचाने वालों को देखते, तो शायद अवसाद में चले जाते. उन्हें संस्कृति राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस्तेमाल होने वाला महज़ साधन लगती थी और उनके अनुसार यही तथाकथित संस्कृति, सांप्रदायिकता को भी स्वार्थ पूरे करने के अवसर देती थी.
गिरीश कर्नाड के नाटकों में बेहद सुंदर संतुलन देखने को मिलता है, जहां वह भारत के तथाकथित स्वर्णिम अतीत या पौराणिक मिथक को कच्चे माल की तरह उपयोग तो करते हैं, पर उसके मूल में कोई समसामयिक समस्या या वर्तमान समाज के विरोधाभास ही निहित रहते हैं.