बंगलुरु हिंसा और उसकी प्रतिक्रिया

वीडियो: बंगलुरु में बीते 11 अगस्त की रात एक कथित फेसबुक पोस्ट के बाद हिंसा भड़क गई. तीन लोग मारे गए और 70 से ज़्यादा घायल हुए. इस मुद्दे पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद का नज़रिया.

आज के परिवेश में गुरु की भूमिका क्या है

बचपन से ही सुनते आए हैं कि गुरु-शिष्य परंपरा के समाप्त हो जाने से ही शिक्षा व्यवस्था में सारी गड़बड़ी पैदा हुई है. लेकिन इस परंपरा की याद किसके लिए मधुर है और किसके लिए नहीं, इस सवाल पर विचार तो करना ही होगा.

सरकार कह रही है कि यह राजनीति का समय नहीं, लेकिन वह ख़ुद क्या कर रही है

मुख्य विपक्षी दल के सवाल करने को उसकी क्षुद्रता बताया जा रहा है. 20 सैनिकों के मारे जाने के बाद कहा गया कि बिहार रेजीमेंट के जवानों ने शहादत दी, यह बिहार के लोगों के लिए गर्व की बात है. अन्य राज्यों के जवान भी मारे गए, उनका नाम अलग से क्यों नहीं? सिर्फ बिहार का नाम क्यों? क्या यह क्षुद्रता नहीं?

दिल्ली हिंसा की साज़िश और फिर जांच की साज़िश

वीडियो: उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगे के दौरान हेड कॉन्स्टेबल रतन लाल की की हत्या मामले में पुलिस ने कोर्ट में चार्जशीट दाख़िल की है. इसमें सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर के नाम का भी जिक्र है. कहा गया है नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शन के दौरान हर्ष ने भड़काऊ भाषण दिए थे. इस मुद्दे पर द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और हर्ष मंदर के साथ प्रोफेसर अपूर्वानंद की बातचीत.

मैं बोलूं क्या और आप सुनें कैसे?

बात कैसे करें कि सब सुन सकें और वह जो कहा जा रहा है, वही सुनें? सुनने का अर्थ क्या है? बोलने में उम्मीद है कि जो कहा जा रहा है, उसे सुना जाएगा, ऐसा होता नहीं. गले के साथ कानों का पर्याप्त प्रशिक्षण हुआ नहीं. सुनना भी बोलने की तरह ही आपकी नैतिक मान्यताओं से जुड़ा है.

अमेरिका में चल रहा विरोध प्रदर्शन भारतवासियों के लिए आईना है और चुनौती भी

जब विरोध होता है तो व्यवस्था की ओर से उपदेश दिया जाता है कि संवाद की स्थितियां बनानी चाहिए. यह बोझ भी प्रदर्शनकारियों पर ही डाल दिया जाता है कि वे संवाद कायम करें. क्या शोषण तर्क और संवाद के सहारे चलता है? विरोध से अराजकता फैलने का आरोप लगाते समय लोग भूल जाते हैं कि जो विरोध करने को बाध्य हुए हैं, उनके जीवन में अराजकता के अलावा शायद ही कुछ है.

दिल्ली हिंसा की पटकथा लिखने के बाद पुलिस कोर्ट और जनता को इस पर यक़ीन कराने का प्रयास कर रही है

दिल्ली पुलिस इस बात पर यक़ीन करने को कह रही है कि फरवरी में दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे एक षड्यंत्र है और इसमें वे ही लोग शामिल हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था. पुलिस को यह पटकथा उसके राजनीतिक आकाओं ने दी और जांच एजेंसियों ने इसे कहानी के रूप में विकसित किया है.

सामाजिक कार्यकर्ता जितने दिन जेल में रहेंगे, भारतीय जनतंत्र की आयु उसी अनुपात में घटती जाएगी

जेल में बंद वरवरा राव शुक्रवार शाम बेहोश हो गए, जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया. महामारी के दौर में भी अदालत ने उन्हें वे रियायत देने की ज़रूरत नहीं समझी है, जो अन्य बुज़ुर्ग क़ैदियों को दी जाती हैं.

क्या उत्तर प्रदेश सरकार राज्य के निवासियों की मालिक या अभिभावक बन गई है?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस बात से बहुत नाराज़गी है कि दूसरे राज्यों ने 'उनके लोगों' की ठीक से देखभाल नहीं की और इस कारण उन्हें इतनी तबाही झेलनी पड़ी. ख़ुद उनकी सरकार ने लोगों का ख़याल कैसे रखा, कैसे महामारी के बहाने 'अपने लोगों' के स्वास्थ्य संरक्षण के नाम पर मालिकाना रवैया अख़्तियार कर लिया है, इस बारे में कोई सवाल नहीं है.

क्या सरकार मान चुकी है कि उसका काम सिर्फ़ घोषणा करना है, तर्क ढूंढना जनता की ज़िम्मेदारी है?

आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी चीज़ का कोई तर्क बचा है? क्या यह इसलिए है कि सरकार निश्चिंत है कि उसके फैसलों की तर्कहीनता की हिमाकत पर उसकी जनता मर मिटने को तैयार बैठी है?

कोरोना काल और भारत का कश्मीरीकरण

वीडियो: लॉकडाउन के दौरान पूरे देश में जहां एक तरफ़ ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है, वहीं कश्मीर में इंटरनेट सेवा पूरी तरह से नहीं दी जा रही है. यहां के शिक्षकों का कहना है कि उन्हें 2जी सर्विस दी जा रही है, जिसमें वे छात्रों को ढंग से नहीं पढ़ा पा रहे हैं. इसी मुद्दे दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद का नज़रिया.

नंदकिशोर नवल: रचना के संसार ने अपना एक पुराना मित्र खो दिया…

विचारधारा की जकड़न से विचारों की स्वतंत्रता की नवल जी की यात्रा कष्टसाध्य रही. उन्हें ख़ुद को ही कई जगह अस्वीकार करना पड़ा. लेकिन चूंकि उनकी प्रतिबद्धता रचनाकार से भी आगे बढ़कर रचना से थी, और विचारधारा से तो कतई नहीं, सो उन्हें ख़ुद को बदलने में संकोच नहीं हुआ.

लॉकडाउन: राष्ट्र की रेल और श्रमिक का शरीर

कार्ल मार्क्स ने 175 साल पहले लिखा कि श्रमिक जिसका निर्माण करता है, वह वस्तु जितनी विशाल या ताकतवर होती जाती है, श्रमिक का बल उसी अनुपात में घटता चला जाता है. अगर रेल की पटरियों पर मरने वाले ये श्रमिक राष्ट्र निर्माता हैं और यह राष्ट्र लगातार शक्तिवान होता गया है तो ये उतने ही निर्बल होते गए हैं.

क्या समाज के लिए मज़दूर सीमेंट, ईंट और गारे की तरह संसाधन मात्र हैं?

मज़दूरों के हित निजी संपत्ति के मालिकों के हितों पर ही निर्भर हैं. सरकार सामाजिक व्यवस्था भी उन्हीं के लिए कायम करती है. अंत में यही कहा जाएगा कि उसने रेल भी मज़दूरों के हित में रद्द की हैं, उन्हें रोज़गार देने के लिए!

भारत मैकार्थी के समय में है या स्टालिन के काल में?

जोसेफ मैकार्थी और स्टालिन दोनों दुनिया के दो अलग-अलग कोनों में भिन्न समयों और बिल्कुल उलट उद्देश्यों के लिए सक्रिय रहे हैं, लेकिन इनके कृत्यों से आज के भारत की तुलना करना ग़लत नहीं होगा.

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