मुज़फ़्फ़रनगर की अध्यापिका से पूछ सकते हैं कि वे छात्र के लिए ‘मोहम्मडन’ विशेषण क्यों प्रयोग कर रही हैं? वे कह सकती हैं कि उनकी सारी चिंता मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई को लेकर थी. मुमकिन है कि इसका इस्तेमाल इस प्रचार के लिए हो कि मुस्लिम शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं हैं और उन्हें जब तक दंडित न किया जाए, वे नहीं सुधरेंगे.
क्या बुद्धिजीवी वर्ग को पालतू बनाए रखने की सरकार की कोशिश या विश्वविद्यालयों में इंटेलिजेंस ब्यूरो को भेजने की उनकी हिमाक़त उसकी बढ़ती बदहवासी का सबूत है, या उसे यह एहसास हो गया है कि भारत एक व्यापक जनांदोलन की दहलीज़ पर बैठा है.
चुनाव हमेशा पुराने आंकड़ों व समीकरणों के बूते नहीं जीते जाते, कई बार उन्हें परसेप्शन और मनोबल की बिना पर भी जीता जाता है. राहुल गांधी अमेठी व प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव मैदान में उतर जाएं तो अनुकूल परसेप्शन बनाने के भाजपा, नरेंद्र मोदी के महारत का वही हाल हो जाएगा, जो पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन का ‘इंडिया’ नाम रखने से हुआ था.
यदि कोई विश्वविद्यालय अपने शिक्षक के अकादमिक कार्य के साथ खड़ा नहीं हो सकता तो वह कितना भी विश्वस्तरीय होने का दावा करे, वह व्यर्थ ही है.
सरकार जिस उमर ख़ालिद उनके मज़हब तक सीमित कर देना चाहती है, पर वो एक गंभीर शोधार्थी हैं, जिनकी पीएचडी का विषय सिंहभूम का आदिवासी समाज हैं. उनकी थीसिस में लिखा गया हर शब्द एक ऐसे शख़्स को हमारे सामने लाता है, जो बेहद गहराई से लोकतंत्र और इसके अभ्यासों के साथ जिरह कर रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह असाधारण समय है, भारतीय सभ्यता के संकट का क्षण है और इस समय साहित्य से कुछ कम की अपेक्षा रखना उसके महत्व और प्रभाव को कम आंकने जैसा होगा.
बीते दिनों पांच बार विधायक रहे अजय राय को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष नियुक्त किया है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब से सत्ता से बाहर हुई है, उसका ग्राफ गिरता ही गया है. ऐसे समय और स्थिति में अजय राय यूपी कांग्रेस को कैसे संभालेंगे और आगे ले जाएंगे, यह बड़ा सवाल है.
‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को राजनीतिक एजेंडा कहना ज़्यादा बेहतर है. जहां इसके सरकारी आयोजन से जुड़ी प्रदर्शनी की सामग्री में विभाजन की त्रासदी में मुसलमानों से जुड़ा कोई दुखद पहलू प्रदर्शित नहीं किया गया है, वहीं आयोजक अतिथियों को 'अखंड भारत' के नक़्शे वाले स्मृति चिह्न भेंट करते दिखे.
समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता पूरी नहीं हो सकती. बाबा साहब आंबेडकर का भी यही मानना था कि अगर राज्य समाज में समानता की स्थापना नहीं करेगा, तो देशवासियों की नागरिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रताएं महज धोखा सिद्ध होंगी.
हिंदुस्तान में जगह-जगह दरारें पड़ रही हैं या पड़ चुकी हैं. यह कहना बेहतर होगा कि ये दरारें डाली जा रही हैं. पिछले विभाजन को याद करने से बेहतर क्या यह न होगा कि हम अपने वक़्त में किए जा रहे धारावाहिक विभाजन पर विचार करें और उसे रोकने को कुछ करें?
अफ़सोस की बात थी कि जिस वक़्त संसद में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं.
निर्मम बलात्कार या यौन अपराधों के कई मामलों में अपराधी का पॉर्न देखने का आदी होना बड़ी वजह बनकर सामने आया है. पॉर्न देखने के मामले में भारत विश्व में तीसरे नंबर पर है, जिसमें 48% दर्शक युवा है. ऐसे में ज़रूरी है कि किशोर होते बच्चों को स्कूलों और सामुदायिक स्तर पर 'पॉर्न की सच्चाई’ को लेकर शिक्षित किया जाए.
राष्ट्रीय स्तर पर एक तरफ कांग्रेस वर्तमान हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ने का दम भरती है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश में इसके वरिष्ठ नेता कमलनाथ हिंदुत्व के घोर सांप्रदायिक चेहरों की आरती उतारते और भरे मंच पर उन्हें सम्मानित करते नज़र आते हैं.
देश की ग़ुलामी के दौर में विदेशी हुक्मरानों तक ने अपनी पुलिस से लोगों के जान-माल की रक्षा की अपेक्षा की थी, मगर अब आज़ादी के अमृतकाल में लोगों की चुनी हुई सरकार अपनी पुलिस के बूते सबको सुरक्षा देने में असमर्थ हो गई है.