अयोध्या को भारत की, या कहें हिंदुओं की धार्मिक राजधानी के रूप में स्थापित करने का राज्य समर्थित अभियान चल रहा है. लोगों के दिमाग़ में 22 जनवरी, 2024 को 26 जनवरी या 15 अगस्त के मुक़ाबले एक अधिक बड़े और महत्त्वपूर्ण दिन के रूप में आरोपित करने को भरपूर कोशिश हो रही है.
चार शंकराचार्यों ने राम मंदिर के आयोजन में शामिल होने से इनकार कर दिया है. उन्होंने ठीक ही कहा है कि यह धार्मिक आयोजन नहीं है, यह भाजपा का राजनीतिक आयोजन है. फिर यह सीधी-सी बात कांग्रेस या दूसरी पार्टियां क्यों नहीं कह सकतीं?
सीजेआई का इंटरव्यू याद दिलाता है कि वाक्चातुर्य कला है और कोई उसका माहिर हो सकता है लेकिन क्या वह ईमानदारी से बोल रहा है? चतुर वक्ता पक्ष चुनते हैं या दिए हुए पक्ष के लिए तर्क जुटाते हैं. वे यह कहकर अपने कहे की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते कि पक्ष उनका नहीं. हम जानते हैं कि उन्होंने अपना पक्ष चुना है.
कांग्रेस के लोग यह सही कहते हैं कि उनके बिना राम मंदिर नहीं बन पाता. लेकिन यह गर्व की नहीं, लज्जा की बात होनी चाहिए. कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि 1949 में बाबरी मस्जिद में सेंधमारी नहीं हुई थी, सेंधमारी धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र में हुई थी.
सरकार के जिस कदम से देश का नुक़सान हो, उसकी आलोचना ही देशहित है. 'न्यूज़क्लिक’ की सारी रिपोर्टिंग सरकार के दावों की पड़ताल है लेकिन यही तो पत्रकारिता है. अगर सरकार के पक्ष में लिखते, बोलते रहें तो यह उसका प्रचार है. इसमें पत्रकारिता कहां है?
मनोज झा के एक वक्तव्य पर जिस प्रकार की हिंसक प्रतिक्रिया हुई है, उससे वर्चस्वशाली समुदाय के हिंसक स्वभाव को समझा जा सकता है.
भाजपा की संस्कृति बदज़बानी और बदतमीज़ी की संस्कृति है. प्रतिपक्षियों, मुसलमानों को अपमानित करके उन्हें साबित करना होता है कि वे भाजपा के नेता माने जाने लायक़ हैं. बिधूड़ी सिर्फ़ सबसे ताज़ा उदाहरण हैं.
उदयनिधि के बयान पर हुई प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हिंदू ख़ुद को सनातनी कह लें, पर अपनी आलोचना नहीं सुन सकते. फिर वे उदार कैसे हुए?
मुज़फ़्फ़रनगर की अध्यापिका से पूछ सकते हैं कि वे छात्र के लिए ‘मोहम्मडन’ विशेषण क्यों प्रयोग कर रही हैं? वे कह सकती हैं कि उनकी सारी चिंता मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई को लेकर थी. मुमकिन है कि इसका इस्तेमाल इस प्रचार के लिए हो कि मुस्लिम शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं हैं और उन्हें जब तक दंडित न किया जाए, वे नहीं सुधरेंगे.
हिंदुस्तान में जगह-जगह दरारें पड़ रही हैं या पड़ चुकी हैं. यह कहना बेहतर होगा कि ये दरारें डाली जा रही हैं. पिछले विभाजन को याद करने से बेहतर क्या यह न होगा कि हम अपने वक़्त में किए जा रहे धारावाहिक विभाजन पर विचार करें और उसे रोकने को कुछ करें?
अफ़सोस की बात थी कि जिस वक़्त संसद में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?
भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता इंसानी रिश्ता नहीं है. वह ताक़तवर और कमज़ोर का संबंध है. कमज़ोर जब चीख नहीं सकता तो ख़ामोश रहकर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है. ताक़तवर के पास उसे इसकी सज़ा देने की ताक़त है.
शुक्ला और त्यागी के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करने के पहले यह सोच लेना चाहिए कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ौरी कार्रवाई का औचित्य बन जाएगा. अब खुलकर बुलडोज़र का इस्तेमाल होगा. सरकारें यह करके कह सकेंगी कि वे कोई भेदभाव नहीं करतीं.
बहुसंख्यकवाद का जो मतलब मुस्लिमों के लिए है, वह हिंदुओं के लिए नहीं. वे कभी उसकी भयावहता महसूस नहीं कर सकते. मसलन, डीयू के शताब्दी समारोह में जय श्री राम सुनकर हिंदुओं को वह भय नहीं लग सकता जो मुसलमानों को लगेगा क्योंकि उन्हें याद है कि उन पर हमला करते वक़्त यही नारा लगाया जाता है.
रघुवीर सहाय ने बहुत पहले लिखा था इस देश में स्वाधीन दिमाग़ से लोग डरते हैं. वह अब नियम है.