'आदिपुरुष' न केवल ख़राब ढंग से बनी फिल्म है, बल्कि इसने हर तरह के लोगों को नाराज़ किया है.
आधुनिक भारत में हिंदू धर्म के संबंध में गांधी जो करने की कोशिश कर रहे थे, गीता प्रेस उसके ठीक उलट लड़ाई लड़ रही थी और लड़ रही है.
देश के महाविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़ाने का क्या एकमात्र रास्ता जुगाड़ रह गया है?
नागरिकों की चेतना को आत्मसमर्पण के लिए भ्रमित करने की बाध्यकारी राजनीति को ख़त्म करने की जरूरत है. जो लोग वैकल्पिक नेतृत्व की बात कर रहे हैं उनके कंधों पर ऐसे ऐतिहासिक मार्ग को चुनने और बनाने के साथ उस पर चलने की बड़ी चुनौती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.
उत्तराखंड में किस मज़हब के लोग कहां व्यवसाय करें, इसका फैसला संविधान या क़ानून नहीं बल्कि कट्टरपंथी करेंगे! नफ़रत के बीज बोने वाले जिन लोगों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वे युगपुरुष बनकर क़ानून को ठेंगा दिखा रहे हैं और संविधान की शपथ लेने वाले उनके आगे दंडवत हैं.
यह निर्णायक बात कि इस बहुभाषी-बहुधर्मी देश में सुलह, समन्वय, सामंजस्य और शांति के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है, अकबर के वक़्त यानी सोलहवीं शताब्दी में ही समझ ली गई थी, उसे आज क्यों नहीं समझा जा सकता?
श्वेता स्टूडियो में हिल रही हैं. इसे देखकर लोग हंस रहे हैं मगर श्वेता वीडियो में गंभीरता के साथ हिली जा रही हैं. यह नरेंद्र मोदी का आज का भारत है और उनके दौर का मीडिया है. आज के भारत का मानसिक और बौद्धिक स्तर यही हो चुका है. वर्ना गोदी मीडिया से ज़्यादा आम दर्शक इसकी आलोचना करता.
कोलकाता और चेन्नई के बीच मुख्य ट्रंक रूट पर कोरोमंडल एक्सप्रेस के संचालन की बहाली राहत की असली वजह नहीं बन सकती क्योंकि भारतीय रेलवे की जोखिमपूर्ण व्यवस्थागत ख़ामियां अभी दूर नहीं हुई हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बहुत ज़रूरी है कि कबीर को एक कवि के रूप में देखा-समझा जाए जो अपने विचार से कविता की स्वायत्तता को अतिक्रमित नहीं बल्कि पुष्ट करता है.
इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!
बनारस का ज़िक्र इसकी सुबहों के बिना अधूरा है. जहां शाम-ए-अवध इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार बदलने को मजबूर हुई, सुबह-ए-बनारस जाने कितनी सदियों से वैसी ही है. सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के लगने लगते हैं और चिड़ियों की चहचहाहट सुहागे का काम करती है.
जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के समय तमिलनाडु के अधीनम (शैव मठ) के पुराहितों के द्वारा सेंगोल को तो ले लिया, लेकिन उसके पीछे के विचार से असहमति के कारण उसको संग्रहालय में रखवा दिया, ताकि भविष्य में अध्येता यह समझ सकें कि भारतीय जनतंत्र का जन्म अनेक परस्पर विरोधी विचारों के बीच हुआ है.
हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का भू-क़ानून में सख़्ती लाने का बयान खोखला और सियासी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं लगता. राज्य में बाहरी लोगों की आबादी बढ़ने के पीछे असली मकसद केवल एक ख़ास धर्म विशेष यानी मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाना ही है, ताकि इस बहाने वोट मिलता रहे और सत्ता बनी रहे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है.