कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा के देहावसान को सात बरस हो गए. इन सात बरसों में उनकी कला की समझ-पहचान और व्याप्ति उनके मातृदेश के अलावा संसार भर में बहुत बढ़ी है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बहुत ज़रूरी है कि कबीर को एक कवि के रूप में देखा-समझा जाए जो अपने विचार से कविता की स्वायत्तता को अतिक्रमित नहीं बल्कि पुष्ट करता है.
पुस्तक समीक्षा: वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ‘डरते हुए’ शीर्षक वाले अपने काव्यसंग्रह के माध्यम से बिल्कुल अलग अंदाज़ में सामने हैं. उनकी कविताएं उनके उस पक्ष को अधिक ज़ोरदार ढंग से उजागर करती है, जो संभवत: पत्रकारीय लेखन या ‘तटस्थ’ दिखते रहने के पेशेवर आग्रहों के चलते कभी धुंधला दिखता रहा.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.
अवध की बलरामपुर रियासत गंगा-जमुनी तहज़ीब का पूर्वी द्वार कही जाती थी. 1997 में कुछ क्षेत्रों को मिलाकर इसे ज़िला बनाया गया तो रहवासियों ने विकास के सपने देखे. पर अब हाल यह है कि 2021 में नीति आयोग द्वारा जारी राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक में यह देश का सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाला चौथा ज़िला रहा.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय द्वारा लिखित एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. इस नाटक, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम स्वतंत्रता के पहले सर्जनात्मक और बौद्धिक रूप से अधिक स्वतंत्र थे और स्वतंत्रता के बाद पश्चिम के अधिक ग़ुलाम होते गए हैं.
पुस्तक समीक्षा: 'सुंदर के स्वप्न' संत सुंदरदास के जीवन और रचनाओं के ज़रिये भारत की आरंभिक आधुनिकता, उसकी बहु-धार्मिकता और बहु-भाषिकता, हिंदी साहित्य के इतिहास और उसके काल-विभाजन तथा रीतिकाल को लेकर किए गए दुष्प्रचार पर सोचने पर विवश करती है.