मध्य प्रदेश: पिछले पांच सालों में सरकार ने जनता के लिए क्या किया?

मध्य प्रदेश में चौदहवीं विधानसभा (2018-2023) ने भाजपा और कांग्रेस, दो सरकारों को देखा, जहां जनता ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, दल-बदल तो देखे ही, साथ ही बढ़ती कट्टरता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को पैठ बनाते देखा. इन पांच सालों के घटनाक्रमों से प्रदेश में भविष्य की राजनीति की दिशा समझी जा सकती है. 

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शिवराज सिंह चौहान के साथ कमलनाथ. (फोटो साभार: ट्विटर)

मध्य प्रदेश में चौदहवीं विधानसभा (2018-2023) ने भाजपा और कांग्रेस, दो सरकारों को देखा, जहां जनता ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, दल-बदल तो देखे ही, साथ ही बढ़ती कट्टरता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को पैठ बनाते देखा. इन पांच सालों के घटनाक्रमों से प्रदेश में भविष्य की राजनीति की दिशा समझी जा सकती है.

शिवराज सिंह चौहान के साथ कमलनाथ. (फोटो साभार: ट्विटर)

ग्वालियर: मध्य प्रदेश की चौदहवीं विधानसभा (2018-2023) ने अपना कार्यकाल तो पूरा किया, लेकिन दो सरकारों को देखा. पहले 15 महीने कांग्रेस ने शासन किया. अगले 45 महीने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार रही. इन पांच साल में मध्य प्रदेश ने राजनीति के बदलते स्वभाव, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को विचारधारा पर हावी होते देखा, राजनीति के कट्टर धार्मिक स्वरूप को देखा, राजनीतिक समीकरणों को बनते-बिगड़ते देखा, सामाजिक ताने-बाने में बिखराव को देखा, मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान के व्यवहार में बदलाव को देखा, दलबदल का वीभत्स रूप भी देखा, संसाधनों की लूट के ललचाते राजनेताओं को भी देखा और घपले-घोटालों को भी देखा.

ये पांच साल अपने-आप में बहुत कुछ कहते हैं और प्रदेश में भविष्य की राजनीति की तस्वीर भी पेश करते हैं. कई मायनों में राज्य के राजनीतिक इतिहास में एक न भूले जाने वाले कालखंड के रूप दर्ज हो चुके चौदहवीं विधानसभा के कार्यकाल की शुरुआत 15 साल के वनवास के बाद 15 महीने के लिए बनी कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार से हुई.

कांग्रेस कार्यकाल

(दिसंबर 2018 – मार्च 2020)

कांग्रेस की वापसी और किसानों की कर्ज़ माफ़ी

15 साल के लंबे इंतजार के बाद आखिर 2018 में कांग्रेस राज्य की सत्ता में वापसी करने में सफल रही थी. हालांकि, पूर्ण बहुमत जुटाने में उसे सफलता नहीं मिली. उसके खाते में 114 सीटें आईं थीं, जबकि भाजपा को 109 सीटें मिलीं. भाजपा द्वारा जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की संभावनाओं के बीच कांग्रेस ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा), समाजवादी पार्टी (सपा) एवं निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार तो बना ली, लेकिन कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया के तीन गुटों में बंटी कांग्रेस के लिए मुख्यमंत्री चयन इतना आसान नहीं था.

अंतत: कमलनाथ और दिग्विजय गुट साथ हो लिए और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कमलनाथ एवं सिंधिया के साथ एक फोटो खिंचाते हुए कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने का ऐलान कर दिया.

New Delhi: Congress President Rahul Gandhi flanked by Madhya Pradesh Congress leaders Jyotiraditya Scindia (L) and Kamal Nath pose for photos after a meeting, in New Delhi, Thursday, Dec. 13, 2018. (PTI Photo)(PTI12_13_2018_000192B)
दिसंबर 2018 में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ राहुल गांधी. (फोटो साभार: ट्विटर)

सरकार के गठन के तुरंत बाद ही सबसे पहला काम किसान कर्ज़ माफ़ी की चुनावी घोषणा को अमलीजामा पहनाने का किया गया और जैसा कि राहुल गांधी ने चुनाव पूर्व वादा किया था कि ‘सरकार गठन के 10 दिनों के भीतर किसानों का कर्ज़ माफ़ किया जाएगा’, उस पर अमल करते हुए कर्ज़ माफ़ी का आदेश पारित कर दिया गया.

लेकिन, 10 दिनों के भीतर कर्ज़ माफ़ी हुई नहीं. पहले से ही कर्ज़ में डूबे मध्य प्रदेश का खस्ताहाल सरकारी खजाना इसमें बाधा बना और कांग्रेस ने चरणबद्ध तरीके से कर्ज़ माफ़ी करना शुरू किया. पहले चरण में छोटे किसानों के 50,000 रुपये तक के कर्ज़ माफ़ किए गए, जबकि 2 लाख रुपये तक के कर्ज़ माफ़ करने का वादा किया था. भाजपा ने इसे वादे से मुकरना करार दिया. कर्ज़ माफ़ी की आस में बैंक ऋण न चुकाने वाले कई किसान डिफॉल्टर घोषित कर दिए गए, जिससे वे परेशानी में घिर गए.

स्वयं कांग्रेस के ही विधायक और दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह ने भी इस मुद्दे पर अपनी ही पार्टी को घेरते हुए कहा, ‘राहुल गांधी को किसानों से माफ़ी मांगनी चाहिए और यह स्पष्ट करना चाहिए कि कर्ज़ माफ़ी में कितना वक्त लगेगा.’

सिंधिया भी विरोध में उतर आए. दिग्विजय सिंह बचाव में उतरे और सरकार के खराब वित्तीय हालात का हवाला देते हुए कहा कि हमने 10 दिनों के भीतर कर्ज़ माफ़ी का आदेश जारी करके वादा निभा दिया, लेकिन कर्ज़ माफ़ करने की प्रक्रिया 5 साल चलेगी.

इस दौरान, सरकार लगातार बाजार से कर्ज़ उठाकर अपने खर्चे चलाती रही. दूसरी ओर, राहुल गांधी को याद दिलाया जाता रहा कि ’10 दिन में कर्ज़ माफ़ न होने की स्थिति में उन्होंने राज्य में मुख्यमंत्री बदलने का भी वादा किया था.’

वर्तमान चुनाव में भी कांग्रेस ने ‘किसान कर्ज़ माफ़ी’ का वादा दोहराया है, लेकिन पिछली गलती से सबक लेकर ’10 दिन के भीतर’ जैसी सीमा तय करने से परहेज किया है.

रोजगार के नाम पर पशु हांकने और बैंड बजाने की दी ट्रेनिंग

वचन-पत्र के वादे के मुताबिक, युवाओं को 4,000 रुपये प्रतिमाह प्रोत्साहन राशि देने के लिए कमलनाथ सरकार युवा स्वाभिमान योजना लेकर आई, जिसमें रोजगार के तौर पर युवाओं को ढोर चराने (पशु हांकने) और बैंड-बाजा बजाने की ट्रेनिंग देने का प्रावधान था.

इसकी तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस कथन से की गई जिसमें उन्होंने ‘पकौड़ा बेचने’ को रोजगार बताया था. इसे कांग्रेस की कथनी और करनी में अंतर बताया गया और उसे चौतरफा आलोचना का सामना भी करना पड़ा.

सरकार गठन के छह माह के भीतर ही लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक हार

15 साल बाद सत्ता में वापसी करने वाली कांग्रेस को उम्मीद थी कि लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन सुधरेगा, लेकिन 29 में से 28 सीटें हारकर उसने राज्य में अपने इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन किया.

पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और कांतिलाल भूरिया, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अजय सिंह, राज्यसभा सांसद और कांग्रेस की लीगल सेल के राष्ट्रीय अध्यक्ष विवेक तन्खा, पूर्व केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी नटराजन, प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत जैसे बड़े-बड़े नाम हार गए.

यहां तक कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक जीवन की पहली हार उस गुना सीट पर झेली है जहां उनका परिवार तीन पीढ़ियों से राज कर रहा था. यही हार बाद में राज्य में तख्तापलट का कारण बनी.

अप्रत्यक्ष प्रणाली से निकाय चुनाव और विधान परिषद बनाने का प्रयास 

एक तरफ राज्य कर्ज़ में डूबा था और किसान कर्ज़ माफ़ी के लिए खजाना खाली था, तो दूसरी तरफ कमलनाथ सरकार विधानसभा में द्विसदनीय व्यवस्था पर आगे बढ़ते हुए विधान परिषद बनाने जा रही थी.

इस संबंध में उसने वचन-पत्र में भी घोषणा की थी. पार्टी का तर्क था कि इससे चुनावी राजनीति से दूर रहने वाले विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को विधानसभा में प्रतिनिधित्व मिलेगा, लेकिन पार्टी के पिछले फैसले बताते थे कि उसने विभिन्न आयोग/बोर्ड आदि में विशेषज्ञों को नजरअंदाज कर अपने चहेतों को साधने के लिए राजनीतिक नियुक्तियां की थीं.

इसलिए विधान परिषद को लेकर सरकार की नीयत पर संदेह पनपा, जिसका आधार यह था कि सरकार गठन के बाद से ही कई पार्टी नेताओं में अपनी अनदेखी के चलते असंतोष पनपा था और सरकार उन्हें साधने के लिए विधान परिषद में भेजने की मंशा रखती थी.

पार्टी के वर्तमान वचन-पत्र में भी विधान परिषद के गठन की बात है और बताया जा रहा है कि टिकट वितरण के बाद रूठे और बगावत पर उतरे नेताओं को साधने के लिए पार्टी उन्हें विधान परिषद में समायोजित करने का आश्वासन दे रही है.

वहीं, लोकसभा चुनाव के छह महीनों के भीतर राज्य में नगरीय निकाय चुनाव होने थे. लोकसभा चुनाव में हार से विचलित राज्य की कांग्रेस सरकार ने निकाय चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए नगर पालिका कानून में संशोधन करने का रास्ता अपनाया.

कमलनाथ सरकार ‘मध्य प्रदेश नगर पालिका विधि संशोधन अध्यादेश, 2019’ लेकर आई जो महापौर और नगर पालिका एवं नगर पंचायत अध्यक्षों को प्रत्यक्ष प्रणाली से चुने जाने पर रोक लगाता था, मतलब कि अब इनका चुनाव मतदान के जरिये सीधे जनता नहीं कर सकती थी, बल्कि जनता द्वारा निर्वाचित पार्षद करते और इससे पार्षदों की खरीद-फरोख्त का रास्ता खुल जाता.

गौरतलब है कि प्रत्यक्ष प्रणाली की व्यवस्था कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की केंद्र सरकार ही संविधान संशोधन करके लाई थी और मध्य प्रदेश इसे लागू करने वाला पहला राज्य बना था. उस समय राज्य में भी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी.

लेकिन कांग्रेस की ही अगली कमलनाथ सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म करने का काम किया.

वचन-पत्र के वादे पूरे न करने पर विरोध और भाजपा सरकार के घोटालों की जांच पर चुप्पी

चुनाव से पहले कांग्रेस ने 973 बिंदुओं वाला 112 पृष्ठीय वचन-पत्र जारी किया था, जिसमें किसान क़र्ज़ माफी, भाजपा सरकार के घपलों-घोटालों की जांच, रोजगार, बेरोजगारी भत्ता, आदिवासी, वकील, पत्रकार, सरकारी कर्मचारियों के हितों की पूर्ति, हर पंचायत में गोशाला आदि जैसे अनेकों वचनों की भरमार थी.

सरकार गठन के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ, मंत्री, विधायक और पार्टी नेताओं ने विभिन्न मंचों से दावे किए कि सरकार अपने वचन-पत्र को ध्यान में रखकर ही काम करेगी. लेकिन दो लाख करोड़ के कर्ज़ में डूबे प्रदेश की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति इसके आड़े आ गई.

फिर उन वचनों की सूची बनाई गई, जिन्हें पूरा करने में सरकारी खजाने पर बोझ न पड़े. धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि वचन पूरे न होने पर उनसे सरोकार रखने वाले वर्ग सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने लगे.

एक प्रशासकीय बैठक में कमलनाथ (फोटो साभार: फेसबुक/कमलनाथ)

महीनों तक वकीलों ने एडवोकेट प्रोटेक्शन एक्ट लाने के वचन को पूरा करने की मांग को लेकर आंदोलन किया. किसानों की कर्ज़ माफ़ी नहीं हुई. वहीं, मंदसौर गोलीकांड में किसानों पर लगे आपराधिक मुकदमे वापस न होने के चलते किसान और किसान नेता आक्रोशित हो गए.

व्यापमं सहित अन्य घोटालों में जन आयोग का भी गठन नहीं हुआ और मामले के ह्विसिलब्लोअर्स ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. गोशाला निर्माण के लिए सरकार फंड नहीं जुटा पाई और बेरोजगारी भत्ता देने की बात से मुकर गई.

सरकारी बाबुओं को शिक्षकों के समान ग्रेड पे ने देने पर लिपिक वर्ग प्रदर्शन करने लगा. पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिला. बात मादक पदार्थ मुक्त प्रदेश बनाने की थी, लेकिन राजस्व प्राप्ति के लिए शराब बेचने के नियम आसान कर दिए गए.

अध्यापक शिक्षा विभाग में संविलियन तो संविदाकर्मी नियमित पदों पर नियुक्ति वाले वचनों को पूरा करवाने को लेकर सड़कों पर उतर आए. बिजली विभाग के आउटसोर्स कर्मचारियों के अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन किया तो सरकार ने लाठियां बरसा दीं.

भाजपा सरकार के घोटालों की जांच करने की जगह सिंहस्थ घोटाले और पौधारोपण घोटाले में शिवराज सरकार को विधानसभा के अंदर क्लीनचिट दी गई और व्यापमं घोटाले के आरोपियों को पार्टी की सदस्यता दी गई.  भाजपा सरकार के अन्य घोटालों की जांच पर भी कमलनाथ सरकार ने चुप्पी साध ली. नतीजतन वे लोग जो ‘वचन-पत्र’ और ‘आरोप-पत्र’ की निर्माण प्रक्रिया से जुड़े थे, सरकार के खिलाफ मुखर हो उठे थे और कांग्रेस से संबंध तोड़ लिए.

कांग्रेसियों की आपसी भिड़ंत

कांग्रेस सरकार को सालभर भी नहीं हुए थे कि सरकार में शामिल और इसमें दखल रखने वाले पार्टी नेता सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार, अवैध खनन, रिश्वतखोरी आदि में लिप्त होने के आरोप लगाने लगे. सत्ता में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए सरकार के अंदर अलग-अलग मोर्चों से घमासान शुरू हो गया.

मंत्री डॉ. गोविंद सिंह ने अपनी सरकार द्वारा अवैध खनन न रोक पाने की बात स्वीकारी तो पार्टी के दो विधायकों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया, जिस पर गोविंद सिंह ने दोनों ही विधायकों को क्षेत्र में हो रहे रेत के अवैध कारोबार का सरगना ठहरा दिया. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर वन मंत्री उमंग सिंघार ने पर्दे के पीछे से सरकार चलाने का आरोप लगाया और कांग्रेस आलाकमान को पत्र लिख डाला.

गौरतलब है कि 15 महीने की कांग्रेस सरकार में दिग्विजय सिंह को ‘सुपर सीएम’ बताया जाता था.

बहरहाल, सिंघार ने दिग्विजय पर रेत और शराब के धंधे में भी लिप्त होने, आईएएस और आईपीएस अफसरों की पोस्टिंग में हस्तक्षेप और उल्टे-सीधे धंधों में लिप्त होने के आरोप लगाए. दिग्विजय समर्थकों ने सिंघार का पुतला फूंक डाला. दिग्विजय ने सिंघार को भाजपा का एजेंट बता दिया.

सिंधिया गुट सिंधिया के सम्मान के लिए सड़कों पर उतर आया और सड़कों पर सरकार विरोधी पोस्टर लगाए गए. इस बीच, कांग्रेस के करीबी रहे ह्विसिलब्लोअर डॉ. आनंद राय और धार के आबकारी आयुक्त के बीच बातचीत का एक ऑडियो वायरल हुआ जिसमें मंत्री उमंग सिंघार, विधायक राज्यवर्द्धन सिंह दत्तीगांव और हीरालाल अलावा के शराब ठेकेदारों से लाखों की वसूली करने की बात सामने आई.

कांग्रेस विधायक नीरज दीक्षित क्षेत्र में काम न होने पर अपनी सरकार के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गए. सरकार को समर्थन दे रहे समाजवादी पार्टी विधायक ने मंत्रियों पर मनमानी और लिफाफा लेकर काम करने के आरोप लगाए. इसके बाद कई कांग्रेसी विधायकों ने भी मंत्रियों के कामकाज पर अंगुली उठाई.

इस सबके बीच सिंधिया का बयान आ गया कि ‘वचन-पत्र के वादे पूरे नहीं हुए तो सरकार को चैन की सांस नहीं लेने दूंगा.’

इस खींचतान से आहत होकर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रहे अरुण यादव ने निराशा व्यक्त करते हुए बयान जारी किया कि ‘इस स्थिति का आभास होता तो सरकार बनाने के लिए लड़ाई नहीं लड़ता.’

मजबूरन कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी को प्रदेश कांग्रेस के सभी नेताओं को सार्वजनिक बयानबाजी न करने की हिदायत देनी पड़ी थी.

बिजली कटौती, तबादला उद्योग, बिहारियों पर मुख्यमंत्री कमलनाथ की टिप्पणी और मीसाबंदी पेंशन बंद

कमलनाथ सरकार में अघोषित बिजली कटौती एक बड़ा मुद्दा बनी. एक मौके पर तो ऊर्जा मंत्री के कार्यक्रम में ही बिजली गुल हो गई. भाजपा ने इसे ‘लालटेन युग’ की वापसी कहा तो कांग्रेस ने बचाव में कहा कि नौकरशाही भाजपा के इशारे पर बिजली काट रही है. कमलनाथ सरकार में बड़ी संख्या में अफसर-अधिकारियों के तबादले हुए थे. इसलिए लगातार 15 महीने की सरकार पर  ‘तबादला उद्योग’ चलाने के आरोप सुर्खियों में रहे, जो भाजपा द्वारा लगाए जा रहे थे.

कमलनाथ ने स्थानीय युवाओं को उद्योगों में 70 फीसदी रोजगार देने का ऐलान करते हुए टिप्पणी कर दी थी कि ‘यूपी-बिहार के लोगों के कारण राज्य के स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती.’ इस पर भी काफी बवाल हुआ था.

इसके साथ ही, 70 के दशक में देश में लगे आपातकाल में जेल जाने वाले लोगों को मिलने वाली मीसाबंदी पेंशन भी कांग्रेस सरकार ने बंद कर दी थी, जिसने काफी तूल पकड़ा था.

कमलनाथ के नेतृत्व पर उठती उंगुलियां और उन पर लगते आरोपों की सूची तो बहुत लंबी रही. जैसे मीडिया के साथ उनके सुरक्षाकर्मियों की बदसलूकी, क्षेत्रीय मीडिया को तवज्जो न देना, उनके ही मंत्रियों द्वारा उन पर भेदभाव का आरोप लगाने पर मंत्रियों से बहसबाज़ी हो जाना आदि.

कांग्रेस सरकार में उम्मीद के विपरीत यह भी हुआ कि कई मौकों पर गाय ले जाने वालों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत कार्रवाई की गई.

राज्यसभा चुनाव और सिंधिया की बगावत

(फोटो साभार: भाजपा/ट्विटर)

जब से कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, तब से ही लगातार प्रदेश भाजपा के बड़े नेता जल्द ही इसके गिरने के दावे करते दिखते थे. एक मौके पर कैलाश विजयवर्गीय ने कहा, ‘आलाकमान को छींकभर आ जाए, तो मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार बन जाएगी.’

हुआ भी यही. तीन सीटों पर राज्यसभा चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान उभरकर सामने आ गई.

विवाद की पूरी पटकथा तब से लिखी जा रही थी जब भाजपा ने घोषणा की कि वह दो राज्यसभा सीटों पर अपनी दावेदारी पेश करेगी (जबकि उसकी विधायक क्षमता एक सीट जीतने की थी). इसके बाद समीकरण ये बने कि एक-एक सीट पर कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवार निर्विरोध राज्यसभा पहुंच जाते. तीसरी सीट पर जोड़-तोड़ की संभावना थी.

दिग्विजय और सिंधिया दोनों ही निर्विवाद सीट से राज्यसभा पहुंचने के इच्छुक थे क्योंकि दूसरी सीट पर भाजपा अपना उम्मीदवार खड़ा करने वाली थी, इसलिए उस पर चुनावों की नौबत आती.

पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी और निर्दलीय व अन्य दलों के समर्थक विधायकों के डांवाडोल रुख के चलते दोनों ही नेता दूसरी सीट पर चुनाव हारने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे.

इन हालात में सिंधिया के लिए राज्यसभा की डगर मुश्किल होती जा रही थी. वहीं, सिंधिया को राज्यसभा में पहुंचने से रोकने की कवायद भी लंबे समय से चल रही थी. कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचने की रेस में पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पूर्व कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव और मीनाक्षी नटराजन जैसे और भी नाम थे जो अपने-अपने चुनाव हारकर लंबे समय से लूप लाइन में पड़े थे.

सिंधिया का कद इन सबसे बड़ा था इसलिए सिंधिया को रोकने के लिए अरुण यादव सहित अन्य पार्टी नेताओं ने प्रियंका गांधी को मध्य प्रदेश की एक सीट से राज्यसभा भेजने की मांग कर डाली.

अपने खिलाफ बनी इन विपरीत परिस्थितियों से सिंधिया के मन में महीनों से भड़की उपेक्षा की आग और तेज हो गई. कमलनाथ महीनों तक चिल्लाते रहे कि भाजपा के 20 विधायक उनके संपर्क में है, लेकिन हुआ उल्टा और सिंधिया ने 22 विधायकों के साथ पार्टी से बगावत कर दी और कांग्रेस सरकार गिराकर भाजपा में शामिल हो गए.

भाजपा कार्यकाल

(मार्च 2020 से शुरू)

शिवराज की वापसी और राज्यसभा चुनावों में फायदे के मद्देनज़र संविधान की अनदेखी

तख्तापलट के बाद अप्रत्याशित तरीके से शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बना दिए गए, जबकि संभावना थी कि तख्तापलट में अहम भूमिका निभाने वाले नरोत्तम मिश्रा या किसी और को यह पद दिया जा सकता है. वहीं, कोरोना महामारी के चलते 26 मार्च 2020 को होने वाले राज्यसभा चुनाव टाल दिए गए.

शिवराज 29 दिन तक बिना मंत्रिमंडल के काम करते रहे जो असंवैधानिक था. वह इसके लिए कोरोना महामारी को वजह बताते रहे. बाद में कांग्रेस की आपत्ति के बाद 5 मंत्रियों वाले मंत्रिमंडल का गठन किया गया, जबकि संविधान 12 मंत्रियों की अनिवार्यता तय करता था.

संविधान की इस अनदेखी का कारण टाले गए राज्यसभा चुनाव थे, जो उस साल 19 जून को होने थे, जिनके चलते भाजपा मंत्रिमंडल बनाने से कतरा रही थी. उसे डर था कि मंत्री न बनाए जाने वाले विधायक चुनावों में उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं.

उपचुनाव और सिंधिया गुट को साधने की चुनौती

अंतत: राज्यसभा चुनाव के बाद मंत्रिमंडल विस्तार हुआ, जिसमें कांग्रेस से बगावत करने वाले 22 विधायकों में से 12 को मंत्री बनाया गया. इससे पहले जो पांच मंत्रियों के साथ शिवराज ने मंत्रिमंडल का गठन किया था, उसमें भी 2 बागी विधायकों के नाम थे. इस तरह कांग्रेस सरकार बनाने वाले कुल 14 विधायक मंत्री बने, जिसके चलते भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल सकी.

फिर उपचुनाव की बारी आई तो सभी 22 बागियों को भाजपा ने चुनाव लड़ाया, जिससे उन सीटों पर पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं में रोष पैदा हुआ. यहां से बात चल निकली कि पार्टी के अंदर सिंधिया की एक अलग पार्टी चल रही है. नतीजतन इस विधानसभा चुनाव से पहले उन सीटों पर भाजपा को बगावत भी झेलनी पड़ी है.

वहीं, तख्तापलट के बाद से लगातार कांग्रेसी विधायकों के भाजपा में जाने का सिलसिला चलता रहा. इसका कारण यह माना गया कि भाजपा सिंधिया पर निर्भरता कम करना चाहती है.

उपचुनाव 28 सीटों पर हुए, जिनमें से 25 सीटों पर कांग्रेसी विधायकों ने दल बदला था. भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतीं. सिंधिया समर्थक 6 विधायक चुनाव हार गए. उनके 13 विधायकों में से 9 को मंत्री पद दिया गया.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/ChouhanShivraj)

बदले-बदले से शिवराज और उनके उग्र हिंदुत्व के पैरोकार सहयोगी

हिंदू और मुस्लिम को अपनी दो बांहें बताने वाले, मुस्लिम टोपी पहनने और ईद का जश्न मनाने वाले पार्टी के उदारवादी चेहरे के रूप में पहचाने जाने वाले शिवराज चौथे कार्यकाल में उग्र हिंदुत्व की राजनीति करते नज़र आए.

मुस्लिम इलाकों का नाम बदलना, मुस्लिमों की संपत्तियों पर बुलडोजर चलाना, हिंदुत्व विरोधी बताकर कलाकारों का विरोध और गिरफ्तारी, मदरसों का सर्वे, ‘लव जिहाद’ और धर्मांतरण के खिलाफ कानून, नाथूराम गोडसे और सावरकर का महिमामंडन, अल्पसंख्यकों और मुस्लिमों के खिलाफ बढ़ते अत्याचार एवं उनके धार्मिक स्थलों पर होते हमले, भाजपा नेताओं और हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मुस्लिमों को निशाना बनाना, फिल्मविज्ञापनों से हिंदू भावनाओं के आहत होने पर कार्रवाई और हमलों जैसी अनेक घटनाएं उनकी सरकार की उपलब्धियां बन गईं.

इस दौरान खरगोन में भी दंगे भड़के और मुस्लिम संपत्तियों पर बुलडोजर चला दिया गया. उज्जैन, मंदसौर या इंदौर में जो पत्थरबाजी और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आईं, उनमें मुस्लिम पक्ष के तो मकान ढहा दिए गए लेकिन दूसरे पक्ष के खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई नही हुई.

खुले मंच से शिवराज घोषणाएं करते दिखे कि ‘लव जिहाद किया तो तबाह कर दूंगा’ और ‘अपराधियों को जिंदा गाड़ दूंगा, उनके घर पर बुलडोजर चला दूंगा.’

उनकी कार्यशैली में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि नज़र आने लगी. इस काम में उनके सिपहसालार बने गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा, जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा का बीड़ा उठाया और देश में जहां कहीं भी उन्हें कुछ ऐसा दिखा जो मनमाफिक नहीं था, उस पर उन्होंने मध्य प्रदेश पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए, खासकर फिल्म और विज्ञापन उनके निशाने पर रहे.

संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर और हुजूर विधायक रामेश्वर शर्मा ने भी उग्र हिंदुत्व का रास्ता अपनाया और अपने सांप्रदायिक बयानों को लेकर लगातार सुर्खियों में बने रहे.

आदिवासी केंद्रित राजनीति, पर आदिवासियों पर बढ़ते अत्याचार

देश की सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले मध्य प्रदेश में पिछले चुनाव में आदिवासी मतदाताओं ने भाजपा को खारिज कर दिया था. इस वोट बैंक का महत्व समझते हुए सत्ता में वापसी के बाद से ही राज्य सरकार इस समुदाय को रिझाने में जी जान से जुट गई. आदिवासी नायकों की प्रतिमाएं प्रदेश भर में स्थापित की गईं. उनके स्मरण दिवस मनाए गए, जिनमें गृहमंत्री अमित शाह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शामिल हुए.

श्योपुर के जिस कूनो-पालपुर अभयारण्य में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने जन्मदिवस पर ‘चीता’ छोड़ने का जो आयोजन हुआ था, वह इलाका भी आदिवासी बहुल था. यहां तक कि 1996 में संसद से पारित पेसा (पंचायत, अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार क़ानून, 1996) क़ानून भी सरकार ने 26 साल बाद लागू कर दिया. आदिवासी अधिकार यात्रा, जनजातीय गौरव दिवस, आदिवासी बहुल 89 विकासखंडों के करीब 24 लाख परिवारों को घर-घर सरकारी राशन पहुंचाने के लिए ‘राशन आपके द्वार’ योजना, छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम राजा शंकरशाह के नाम पर रखना जैसे अनेक कदम आदिवासी वर्ग को रिझाने के लिए लगातार उठाए गए.

इस तरह बरसों से उपेक्षित आदिवासी समुदाय अचानक से राजनीति के केंद्र में आ गया.

दूसरी तरफ, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट ने तस्वीर का स्याह पक्ष सामने रखा. इसके मुताबिक आदिवासियों के खिलाफ अपराध के मामले में मध्य प्रदेश 2018 से ही देश में पहले पायदान पर रहा और साल दर साल समुदाय के खिलाफ घटित अपराधों की संख्या में बढ़ोतरी ही देखी गई.

इस दौरान राज्य की कई घटनाएं सुर्खियों में रहीं. एक तरफ भाजपा आदिवासियों को रिझाने का प्रयास कर रही थी, तो दूसरी तरफ उसके ही नेता उन पर अत्याचार कर रहे थे.

सीधी में भाजपा नेता ने आदिवासी युवक के ऊपर पेशाब की, तो वहीं भाजपा विधायक के बेटे ने आदिवासी युवक पर गोली चला दी. धर्मांतरण को लेकर भाजपा के करीबी हिंदुत्ववादी संगठन भी आदिवासियों को निशाना बनाते रहे.

कूनो में चीते और शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर सितंबर 2022 में श्योपुर के कूनो अभयारण्य में नामीबिया से 8 चीते लाए गए. 18 फरवरी को दक्षिण अफ्रीका से 12 और चीते लाए गए थे. पहली खेप में नामीबिया से आई ‘ज्वाला’ ने चार शावकों को जन्म दिया था. इसके बाद से लगातार होतीं चीतों की मौत सुर्खियों में रही और विशेषज्ञों ने इस प्रोजेक्ट की खामियों पर कई टिप्पणियां कीं.

कूनो नेशनल पार्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: ट्विटर/पीएमओ)

मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और शीर्ष अदालत चिंता जताते हुए चीतों को स्थानांतरित करने तक की बात कही.

वहीं, चुनाव से ऐन पहले ओंकारेश्वर में शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची प्रतिमा की स्थापना की गई. यहां भी आरोप लगे कि प्रतिमा अनावरण के चलते बांध का पानी रोका गया, जिससे क्षेत्रीय लोगों को बाढ़ का सामना करना पड़ा.

व्यापमं का दोहराव और घोटालों के आरोप

साढ़े तीन साल की शिवराज सरकार घोटालों के आरोपों से घिरी रही, जिनमें कृषि विस्तार अधिकारी परीक्षा घोटाला, पटवारी परीक्षा घोटाला, पोषण आहार घोटाला और महाकाल लोक घोटाला प्रमुख रहे.

कृषि विस्तार अधिकारी परीक्षा पर टॉपर्स छात्रों के एक ही कॉलेज-क्षेत्र-समुदाय से होने से लेकर एक जैसे प्राप्तांक और ग़लतियों संबंधी कई सवाल उठे, जिसे लेकर ग्वालियर एग्रीकल्चर कॉलेज के छात्र इसे दूसरा व्यापमं घोटाला बताते हुए महीनेभर से अधिक समय तक आंदोलनरत रहे. बाद में यह परीक्षा रद्द कर दी गई.

पटवारी परीक्षा घोटाले को व्यापमं-3 नाम मिला. परीक्षा के 10 में से 7 टॉपर भाजपा विधायक के परीक्षा केंद्र से निकले थे. इस परीक्षा पर भी रोक लगा दी गई.

कुपोषण से जूझते मध्य प्रदेश को लेकर महालेखाकार (कैग) की एक रिपोर्ट में सामने आया कि राज्य में महिलाओं और बच्चों को दिए जाने वाले पोषण आहार संबंधी योजना में बड़े पैमाने पर अनियमतिताएं हुई हैं. प्रदेश में बच्चों, किशोरियों और गर्भवती व धात्री महिलाओं को बांटे जाने वाले टेक होम राशन में करोड़ों रुपये का गबन हुआ है. साथ ही, पोषण आहार की गुणवत्ता भी मानकों से नीचे पाई गई है. इस मंत्रालय का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास था.

उज्जैन के महाकाल लोक में तेज हवा से धराशयी होतीं देवी-देवताओं की करोड़ों रुपये से बनी प्रतिमाओं में भी भ्रष्टाचार की दुर्गंध पाई गई. इसका लोकार्पण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था.

नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को झटका और ओबीसी आरक्षण पर बहस

पिछले साल हुए नगरीय निकाय चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा को तब झटका लगा जब 16 नगर निगम में से 7 पर उसे हार का सामना करना पड़ा. पिछले निकाय चुनाव में सभी 16 नगर निगम में उसके महापौर बने थे, लेकिन 2022 में यह संख्या 7 रह गई. 5 सीट कांग्रेस ने जीत लीं, तो आम आदमी पार्टी (आप) ने भी एक सीट जीतकर राज्य में अपनी दस्तक दे दी.

वर्तमान चुनाव में ओबीसी वर्ग और जातिगत जनगणना मुद्दा हैं. ओबीसी आरक्षण के मुद्दे ने करीब दो साल पहले भी राज्य की राजनीति में उबाल ला दिया था. सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस आमने-सामने आ गए थे. घमासान का केंद्र बिंदु राज्य के पंचायत चुनाव रहे थे, जिन्हें लगभग सभी तैयारियां पूरी होने के बावजूद ऐन वक्त पर निरस्त करना पड़ा.

इसका कारण सरकार द्वारा लाया गया मध्य प्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज (संशोधन) अध्यादेश-2021 था. इसे संविधान और पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम के विरुद्ध बताया गया और कांग्रेस ने इसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी.

सरकार ने अध्यादेश में ऐसा प्रावधान जोड़ा था कि 2021 के चुनाव में 2014 का आरक्षण लागू हो. जबकि, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243 (डी) कहता था कि हर पांच वर्ष में होने वाले पंचायत चुनावों में आरक्षण रोटेशन से तय हो.

यहीं से ओबीसी आरक्षण पर बखेड़ा शुरू हुआ. कांग्रेस की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत चुनावों में ओबीसी आरक्षण रद्द कर दिया और मध्य प्रदेश निर्वाचन आयोग को ओबीसी आरक्षित सीटें सामान्य श्रेणी में शामिल करने का आदेश दे दिया.

भाजपा ने इसे ओबीसी के खिलाफ कांग्रेस की साजिश करार दिया तो कांग्रेस ने कहा कि भाजपा सरकार संविधान और सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखाकर ट्रिपल टेस्ट कराए बिना आरक्षण दे रही थी.

बाद में कांग्रेस इस मुद्दे पर सदन में स्थगन प्रस्ताव लेकर आई और विपक्ष के इस प्रस्ताव को अप्रत्याशित रूप से सत्ता पक्ष ने भी स्वीकार लिया और दोनों दलो ने एकजुट होकर संकल्प लिया कि चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ ही होंगे.

उमा भारती की नाराजगी और शिवराज को हटाए जाने के कयास

इस बीच, हाशिए पर पड़ी प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती लगातार सरकार विरोधी और पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए सुर्खियों में छाई रहीं. शराबबंदी की मांग करते हुए और शिवराज सरकार की शराब नीति को निशाना बनाते हुए कई मौकों पर वह शराब दुकानों पर पत्थर फेंकती देखी गईं. उनके पार्टी और सरकार विरोधी बयान भी सुर्खियों में रहे. उनकी यह नाराजगी ऐन चुनाव तक कायम रही और पार्टी ने भी उन्हें चुनाव प्रचार में तवज्जो नहीं दी.

दूसरी ओर, शिवराज का पूरा कार्यकाल उन कयासों से जूझते हुए बीता कि पार्टी उनके स्थान पर किसी और की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी कर सकती है.

कभी नरेंद्र सिंह तोमर का मुख्यमंत्री के लिए नाम चला, तो कभी नरोत्तम मिश्रा का. हालांकि, शिवराज की कुर्सी पर तब तो कोई खतरा नहीं आया लेकिन विधानसभा चुनाव से ऐन पहले पार्टी ने केंद्रीय मंत्रियों समेत कई दिग्गजों को विधानसभा चुनाव लड़ाकर अपनी मंशा जाहिर कर दी.

पांच साल की कुछ अन्य प्रमुख घटनाएं

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के विधायक बेटे आकाश विजयवर्गीय का ‘बल्ला कांड’ खूब चर्चाओं में रहा. 2019 में इंदौर में एक जर्जर मकान ढहाने गए नगर निगम के एक अधिकारी को आकाश ने क्रिकेट बैट से पीटा था. घायल अधिकारी को आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा था. प्रधानमंत्री मोदी तक ने इस घटना को अस्वीकार्य बताते हुए ऐसे लोगों को पार्टी से बाहर करने की बात कही थी, लेकिन आकाश कभी बाहर नहीं किए गए.

महात्मा गांधी के आदर्शों पर चलने वाली कांग्रेस ने उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के उपासकों को बार-बार पार्टी में शामिल करते हुए चौंकाया. पहले तो ग्वालियर में हिंदू महासभा के कार्यालय में गोडसे की प्रतिमा स्थापना में शामिल रहे नगर निगम के पार्षद बाबूलाल चौरसिया को कांग्रेस में शामिल किया गया, उसके बाद हिंदू राष्ट्र का अभियान चलाने वाले एवं गोडसे के समर्थन में छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का पुतला जलाने वाली बजरंग सेना का कांग्रेस में विलय किया गया.

कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस का कथित सॉफ्ट हिंदुत्व भी पांच सालों तक चर्चा में रहा. कभी कमलनाथ खुद को हनुमान भक्त बताते नजर आए तो कभी राम मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने पर मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी (एमपीसीसी) का कार्यालय भगवामय हो गया. एमपीसीसी में हनुमान चालीसा का पाठ हो या हिंदू राष्ट्र की समर्थक बजरंग सेना का वहां जय श्री राम के नारे लगाना हो या राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेने के लिए यह कहना हो कि ‘मंदिर के पट तो कांग्रेस ने ही खुलवाए थे’, पार्टी ने खुद को हिंदुत्ववादी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कमलनाथ सांप्रदायिक सोच रखने वाले बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के चरणों में भी बैठे नजर आए. यहां तक कि कांग्रेस ने अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के विपरीत जाकर भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ भी करार दे दिया.

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पर आरोप लगे कि वे पार्टी हित ताक पर रखकर अपने-अपने बेटों (क्रमश: नकुलनाथ और जयवर्द्धन सिंह) को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. दोनों के बेटों के ‘भावी मुख्यमंत्री’ होने के पोस्टर भी प्रदेश में लगे नजर आए. लोकसभा चुनाव में हार के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने स्वयं कमलनाथ को लेकर टिप्पणी की कि उनका ध्यान अपने बेटे की जीत पर अधिक था. कमलनाथ और दिग्विजय सार्वजनिक तौर पर आपस में एकजुटता का प्रदर्शन करते रहे, लेकिन द वायर की रिपोर्ट में कांग्रेस के ही अंदरूनी सूत्रों ने दोनों के बीच गुटबाजी की पुष्टि की. इन आशंकाओं को तब और बल मिला जब बीते दिनों कमलनाथ टिकट वितरण के संबंध में दिग्विजय पर टिप्पणी करते नज़र आए थे.